हमारी मुस्कराहट : उनकी बैचैनी।
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पैरों में पड़ी है स्त्रवणी* धर्म की जंजीरें
और समझदार लोग
चाहते हैं कि हम दौड़े और
जमाने की दौड़ में आगे निकल जाएँ।
हमारी भुजाओं को काट कर
वे उम्मीद रखते हैं-
हम भविष्य मे सुंदर मंदिर की सृजना करें
और वे अपनी टकसाली लक्ष्मी प्रतिमा की
स्थापना करें।
हमारी कनपटी पर वे हमेशा करते हैं
अपने अधिकारी हथौड़े की चोट
और हुक्म देते हैं __
हम उनकी मौज के लिए
मुनाफे की योजनाएँ बनाते हुए
पूरी होते रहें और मरते रहें।
कैसे हैं वे अयोग्य निर्बल किंतु धनबल वाले लोग
जो हमारी हत्याएँ कर हमारे मुर्दों से माँग करते हैं-
हम जीवित बलवान
अक्लमंद मनुष्य की भांति
उनके काम साजें और साजते रहें।
सोने की डोरियों के सहारे
कठपुतलियों की भाँति
शवों को उछाल-उछाल कर
दर्शन करते हैं मदारी बने हुए
वे शवों को नृत्य करवाने वाले।
मौत मार खाकर भी
कठपुतलियाँ बनने के बाद भी
हमारे चेहरों पर पसरी मुस्कुराहट
लोप नहीं होगी, जिसको देखकर
उनके दिन तो क्या? रात भी नहीं कटेगी।
बेचैनी बेचारी बढ़ती है,पर घटती नहीं।
२.हिसाब
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एक सेठ दुकान में बैठा
गिन रहा है रुपए
और हिसाब लगाता है
दिन भर की कमाई का।
एक निभागण गिनती है
बनायी हुई रोटियाँ
घूमाती है आटे के पीपे में हाथ
और हिसाब लगाती है
कुनबे की भूख का।
३.आदमी और मौत
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दूर, बहुत दूर
नदी-नालों-पर्वतों के पार
किसी भाडे़ के सिपाही ने
गोली चलाई देशभक्त पर
और घाव मेरे हृदय में पड़ा।
कई कोसों दूर मेरे मुल्क में
कहीं कोई भूख से मरा
मैं एक जीवन जीने के लिए
उस वक्त मर गया
फिर मर गया
फिर
बारंबार मर गया।
४.अचरज
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अचरज है कि इस बस्ती के लोग
अब भी जी रहे रहे हैं।
जबकि इन सब की मौत हो गयी थी
कंधों में गोली लगने से
और इनके नाम शीत-युद्ध में
मरने वालों की सूची में छपे हुए हैं।
मैं हमेशा इस बस्ती में
सूखे, अंधेरे गहरे कुँए में
रोशनी डाल कर देखता हूँ कि -
रात को किसी ने इस बस्ती के
किसी मुर्दे को इसमें पटका या नहीं
जिससे मैं दूसरी बार कर सकूँ
उसकी मृत्यु की घोषणा।
अचरज है कि इतने दिनों में
इस शुभकाम की शुरुआत
किसी ने नहीं की।
लगता है अब मुझे ही
करनी होगी यह शुरुआत
बसना पड़ेगा इन मुर्दों के बीच
इस शुभकाम की शुरुआत बाबत,
इनकी अंतिम मृत्यू की घोषणा बाबत।
अलमारियों में बंद
इनकी पोथियों को खा गयी है दीमक
कभी पढ़ा नहीं उन्हें।
उनके पन्नों से इन्होंने अपनी
सिगरेटें सिलगाई।
इनका पूरा समय बीत गया
आपस की इस बहस में कि -
मरवण के घाघरे में कितनी सलवटें हैं?
कि फलां कब जन्मा?
कि वो कब,
कहाँ
किसका
क्या था?
ये लड़ मरे
मुर्दों की बातों बाबत
जिंदा लोगों का यश गटक कर।
क्या अब भी इनकी
अंतिम मृत्यु की घोषणा करनी पड़ेगी?
५ टूटना
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तप तप कर गर्म हुआ
फिर तपा
गर्म हुआ।
पानी की बूँद पड़ी
'त ट ट' करता टूट गया
काँच का गोला
मेरी चिमनी का
६.हम अपमानित
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बारंबार अपमानित हुआ हूँ मैं
अपमानित हुए हो आप
मेरे साथियों!
हम में से जब कभी कोई
सड़क पर आकर गाता है
हम लोगों से गाने का
'हुक्म नामा' मांगा जाता है।
हमने जब कभी अँधेरे में
मंत्रणा करते हुए चेहरों पर
टॉर्च की रोशनी डाली,
छिपे हुये हाथों की निशानी बनीं टॉर्चें।
हमने जब कभी किसी मंच से
अपनी वाणी को ताना
हम अपराधी घोषित हुए।
हमारे ऊपर फकत शब्द ही नहीं
फेंकी गयी पूरी किताबें
लगाये गये हमारे शब्दों पर शब्द
जिससे उनको कोई सुने नहीं
कोई उनको पढ़े नहीं,गुने नहीं।
जब कभी उनको किसी ने सुन लिये
पढ़ लिये या गुन लिये समझो तभी
बदल जायेंगे नियम सभी,
चेहरों पर चढ़े हुए सभी मुखावरण
टूट जायेंगे, दरार पड़ जायेगी,
अंदर का संसार धारण करता रूप
बाहर निकल आयेगा।
७.सहारा
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मेरे साथ इस अथाह समुद्र में
भुजबल के सहारे तैरने वाले मेरे मित्रों!
हमारे साथ कई लोग एक साथ तैर रहे हैं
तूंब्या*, ट्यूब, डूंगियों और
कई अन्य चीजों के सहारे,
नहीं है इनको अपनी भुजाओं पर भरोसा।
इनको देखकर मत डुला देना अपने अंतस को
स्वयं की दशा पर मत दर्शाना दुख - चिंता,
मत करना थक कर समझौता।
ये निर्बल पराश्रित लोग
सहारे के नाम पर बांध लेते हैं
नियमों व शर्तों की डोरियों से
और वे बंधे हुए बैल बने लोग
इनके काम आते हैं बोझा ढोने बाबत।
आपके साथ तैरने वाला मैं जानता हूँ कि
हमारी देह पर रिसते कई घाव और
समुद्र का लवणयुक्त पानी दाह उपजा रहा।
किनारे दृश्यसीमा से बाहर है।
हो सकता है तैरते-तैरते
समंदर की लहरों को चीरते हुए भी
हम नहीं पहूँच सकें किनारे तक
और समुद्र की कोई एक लहर
तोड़ डाले अपना देहबल
और हम डूब जाएं -मारे जायें।
लेकिन उस मरने से यह
'मारा जाना' सुंदर है।
समुद्र की लहरें तोड़ सकती है देहबल
लेकिन आत्मबल तोड़ने की शक्ति नहीं है उसमें,
पूरे समुद्र में भी नहीं।
यदि हम पहुंच गये किनारे तो
कई मर जायेंगे जीवित होते हुए भी
और यदि नहीं पहुंच सके तो पहुंचने वाले
शर्म से मर जायेंगे।
धारण कर लो,
धारण कर लो मेरे मित्रों!
कि -
"मारे गये कहलाना कबूल है
लेकिन 'मर गये' कहलाना कबूल नहीं"।
८.अकाल
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धूप मौन होकर चूस रही है
स्याहीचूस की तरह जल,सरोवर का
मछलियाँ नाप रही है उपरी तल से निचले तल तक की गहराई।
सूरज की किरणें डॉक्टर की सुई भाँति
खींच रही है रक्त हरे वृक्षों का
पक्षी अनमने मन से ढूँढ रहे हैं
सूखी-बिखरी हुई वृक्षो की छाँव,
कृषकों की आँखों में उग आया सूरज
अंतत डूब गया है अथाह नयन जल में।
तब किसी एक किसान ने
गर्दन उठा कर कहा -
"नहीं है, नहीं है पानी आसमान में
आसमान के देवों में,
पानी है धरती में, धरती के लोगों में
अकाल यहाँ नहीं वहाँ पड़ा होगा।
कहाँ पड़ा अकाल और कहाँ कर रहे भोग लोग
कह रहे हैं संजोग
फकत संजोग!
९. कवि की मौत
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वो जब मर गया तब लोगों को लगा -
-हमारी फौजों के पास खत्म हो गया बारूद
जिसके आसरे हम हमलवरों से युद्धरत थे
और हमारे सिपाहियों के कदम
जीत की सीमा रेखा पार करने वाले थे।
-फूट गयी वह दवा की शीशी
जिससे हमारे देह पर रिसते घाव गिरने लगे थे।
-समाप्त हो गया उस ट्यूबवेल का पानी
जिससे बुझाते थे प्यास, धोते थे
शरीर और वस्त्रों का मेल
करते थे खेती की सिंचाई।
-खत्म हो गया वह अनाज का ढेर
जिससे हम भूख की मुर्गी को चुगा चुगाते थे।
-खो गयी वह दृष्टि जो
भले-बुरे की पहचान करती
जो मार्ग बताती जिस पर
चल कर हम वहाँ पहुंचते
जहाँ सुख बांटे जाते।
लगा कि -
-विश्वास का घर दरार खा गया
उम्मीद का छप्पर टूट गया,
जम गमा रक्त देह की नलियों में
स्वांस की थैली फट गयी।
नहीं, पर नहीं
हुआ तो सिर्फ इतना
कि ऐक चारों तरफ फैला
सीनातान
गर्व और गुमेज सा दिखता
भरे आकाश चढा हुआ वह
सिमटकर कागजो की परतों में पहुंच गया।
१०.प्रतीक्षा
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कच्ची शराब के भभकने की तरह
पसर जाता है दिन - झोंपड़ी पर
जग जाती गलियों में गालियाँ व जालियाँ
उसका मजूरी पर जाने का वक्त हो गया है
पर वो कल का निकला अभी तक आया नहीं।
इन ऊंची इमारतों ने शुरू कर दी
झौंपड़ियों को कस कस कर ठोकरें मारनी
बाहर निकले बाद वह बन जाता है
'मेटाडर' या कि जोकर,
गरीब की भूख फटी हुई चप्पल में
चुभती कील की तरह बनाए रखती है
एक चुभन अष्टपोर,
तुलसी हो या कबीर
पेट बजा कर,हाथ पसार कर आ गया है द्वार
पर वह वापिस नहीं आया
कल का गया हुआ अभी तक।
संसार त्यागी
संसारियो के बीच बैठ
सुनाते हैं अमर कहानियाँ
तन्द्रा में या लय में,
हिलती रहती हैं घंटियाँ
ऊंचे घर की दहलीज पर बोल रहा है उल्लू
चुल्लू उस बड़ी नाक बाबत छोटा है।
आसपास की हरियाली
कैद है उनके कैक्टस और मनीप्लांट में
हर काल में दुख: निर्बल को खेंचता है,
राजवी पिलास* गंगा में
स्नान कर सींच रहा है अपना उपवन
और वो है कि नेह के चने बांटता फिर रहा है
जबकि वे उसे चने के छिलके जितना ही नहीं मान रहे।
खबरों का झुनझुना बजाता
आ गया है आज का अखबार
पर वो कल का गया हुआ
लौट नहीं आया।
उसकी कोई ख़बर नहीं छपी अख़बार में
और नेताजी को उसके(?) कल्याण से फुर्सत नहीं,
उगते रहते हैं ऐसे ही आदर्शों के केश
उगते रहते हैं टूटे हुए बाल।
देह हवा में लटक रही लेकिन वो है कि
दवा और दुआ के बीच झूले खा रहा,
दिलाशों की अफीम चटा कर झुला झुला रही राजनीति कहती है -
"सो जा बाबू सो जा रे
थोड़ा मोटा हो जा रे"।
पर इस बाबू को कभी मोटा नहीं होने देते
नोट और सोट के इसारे बाबू वोट डाल
खुद को सरकार मान राजी हो जाता है।
बात घर-गवाड़ की हो या देस प्रदेश की
पढ़ता है, सुनता है लेकिन खुद नहीं समझता
अब वो वापिस आये तो कुछ सुनाये।
वो जब हमेशा काम की तलाश में जाता है
तो उसको लगता है कि जिनके पास काम है वे करते नहीं
जो करना चाहते उनको काम नसीब नहीं।
छपी हुई हो या चित्रित हो कि हों गढी हुई
रपटीली गोलाइयां और मुंह भरता पानी
कब तक हो अदृश्य,
कहानी की रानी से खींचातानी
और नित एक तस्वीर चटखा देता है
नामचीन पहलवान,
समाज के दुर्ग पर रहता
आठों पोर पहरा।
किसी चाल का दृश्य
अंदर ही अंदर चुभता रहता है
बोटी हो कि नहीं हो कुत्ते हड्डियाँ चूसते रहते हैं,
'मीट' शब्द का अलग अलग भाषाओं में अलग अलग अर्थ-
माँस, मिलना, नजर या फिर नमक
बच्चे को अर्थ बताता मास्टर
वक्त का पत्थर एक तरफ कर पूछता है -
'कली में कली'?
बच्चे उत्पात का कंकड़ फेंकते हैं -
"छिपकली!"
मास्टर की आँख घड़ी से
और बच्चों के कान घंटी से चिपके रहते हैं
बेटे के स्कूल जाने का वक्त हो गया
पर बाप कल का गया हुआ कहाँ रह गया?
कलंक की कमी नहीं हो रही
कलकी अवतार नहीं ले रहा
पाप कोई घड़ा नहीं कि भर जाये
लोभ कोई जीव नहीं कि मर जाये
समझ जाते हैं नकली दाँत
कितना ही ताव क्यूँ न खा लें
नहीं घटेंगे बादामों के भाव
घर-घर गली-गली दे आवाज
"आओ आओ"
कल निकले हुए गंगाराम
काम खूब बाकी है तुम्हारा
पूरा करने जल्दी आओ!
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