Tuesday 28 July 2020

पारस अरोड़ा की राजस्थानी कविताओं का हिंदी अनुवाद- अनुवादक-राजेन्द्र देथा

हमारी मुस्कराहट : उनकी बैचैनी।

_______________________
पैरों में पड़ी है स्त्रवणी* धर्म की जंजीरें
और समझदार लोग
चाहते हैं कि हम दौड़े और
जमाने की दौड़ में आगे निकल जाएँ।

हमारी भुजाओं को काट कर
वे उम्मीद रखते हैं-

              हम भविष्य मे सुंदर मंदिर की सृजना करें
              और वे अपनी टकसाली लक्ष्मी प्रतिमा की
              स्थापना करें। 

हमारी कनपटी पर वे हमेशा करते हैं 
अपने अधिकारी हथौड़े की चोट
और हुक्म देते हैं __


           हम उनकी मौज के लिए
           मुनाफे की योजनाएँ बनाते हुए 
           पूरी होते रहें और मरते रहें।

कैसे हैं वे अयोग्य निर्बल किंतु धनबल वाले लोग
जो हमारी हत्याएँ कर हमारे मुर्दों से माँग करते हैं-
                     
              
            हम जीवित बलवान
            अक्लमंद मनुष्य की भांति
            उनके काम साजें और साजते रहें।

सोने की डोरियों के सहारे
कठपुतलियों की भाँति
शवों को उछाल-उछाल कर
दर्शन करते हैं मदारी बने हुए
वे शवों को नृत्य करवाने वाले।

मौत मार खाकर भी
कठपुतलियाँ बनने के बाद भी
हमारे चेहरों पर पसरी मुस्कुराहट
लोप नहीं होगी, जिसको देखकर
उनके दिन तो क्या? रात भी नहीं कटेगी।

बेचैनी बेचारी बढ़ती है,पर घटती नहीं।

२.हिसाब
________
एक सेठ दुकान में बैठा
गिन रहा है रुपए
और हिसाब लगाता है
दिन भर की कमाई का।

एक निभागण गिनती है
बनायी हुई रोटियाँ
घूमाती है आटे के पीपे में हाथ
और हिसाब लगाती है
कुनबे की भूख का।

३.आदमी और मौत
______________

दूर, बहुत दूर
नदी-नालों-पर्वतों के पार
किसी भाडे़ के सिपाही ने
गोली चलाई देशभक्त पर
और घाव मेरे हृदय में पड़ा।

कई कोसों दूर मेरे मुल्क में
कहीं कोई भूख से मरा
मैं एक जीवन जीने के लिए
उस वक्त मर गया
फिर मर गया

फिर

बारंबार मर गया।

४.अचरज
_________
अचरज है कि इस बस्ती के लोग
अब भी जी रहे रहे हैं।
जबकि इन सब की मौत हो गयी थी
कंधों में गोली लगने से
और इनके नाम शीत-युद्ध में
मरने वालों की सूची में छपे हुए हैं।

मैं हमेशा इस बस्ती में
सूखे, अंधेरे गहरे कुँए में
रोशनी डाल कर देखता हूँ कि -
रात को किसी ने इस बस्ती के
किसी मुर्दे को इसमें पटका या नहीं
जिससे मैं दूसरी बार कर सकूँ
उसकी मृत्यु की घोषणा।

अचरज है कि इतने दिनों में
इस शुभकाम की शुरुआत
किसी ने नहीं की।

लगता है अब मुझे ही
करनी होगी यह शुरुआत
बसना पड़ेगा इन मुर्दों के बीच
इस शुभकाम की शुरुआत बाबत, 
इनकी अंतिम मृत्यू की घोषणा बाबत।

अलमारियों में बंद
इनकी पोथियों को खा गयी है दीमक
कभी पढ़ा नहीं उन्हें।
उनके पन्नों से इन्होंने अपनी
सिगरेटें सिलगाई।

इनका पूरा समय बीत गया
आपस की इस बहस में कि -
मरवण के घाघरे में कितनी सलवटें हैं?
कि फलां कब जन्मा?
कि वो कब,
कहाँ
किसका
क्या था? 

ये लड़ मरे
मुर्दों की बातों बाबत
जिंदा लोगों का यश गटक कर।

क्या अब भी इनकी
अंतिम मृत्यु की घोषणा करनी पड़ेगी?


५ टूटना
_________
तप तप कर गर्म हुआ
फिर तपा
गर्म हुआ।

पानी की बूँद पड़ी
'त ट ट' करता टूट गया
काँच का गोला
मेरी चिमनी का

६.हम अपमानित
_____________
बारंबार अपमानित हुआ हूँ मैं
अपमानित हुए हो आप
मेरे साथियों!

हम में से जब कभी कोई
सड़क पर आकर गाता है
हम लोगों से गाने का
'हुक्म नामा' मांगा जाता है।

हमने जब कभी अँधेरे में
मंत्रणा करते हुए चेहरों पर
टॉर्च की रोशनी डाली,
छिपे हुये हाथों की निशानी बनीं टॉर्चें। 

हमने जब कभी किसी मंच से
अपनी वाणी को ताना
हम अपराधी घोषित हुए।

हमारे ऊपर फकत शब्द ही नहीं
फेंकी गयी पूरी किताबें
लगाये गये हमारे शब्दों पर शब्द
जिससे उनको कोई सुने नहीं
कोई उनको पढ़े नहीं,गुने नहीं।

जब कभी उनको किसी ने सुन लिये
पढ़ लिये या गुन लिये समझो तभी
बदल जायेंगे नियम सभी, 
चेहरों पर चढ़े हुए सभी मुखावरण
टूट जायेंगे, दरार पड़ जायेगी,
अंदर का संसार धारण करता रूप
बाहर निकल आयेगा।

७.सहारा
_________
मेरे साथ इस अथाह समुद्र में
भुजबल के सहारे तैरने वाले मेरे मित्रों!

हमारे साथ कई लोग एक साथ तैर रहे हैं
तूंब्या*, ट्यूब, डूंगियों और
कई अन्य चीजों के सहारे,
नहीं है इनको अपनी भुजाओं पर भरोसा।

इनको देखकर मत डुला देना अपने अंतस को
स्वयं की दशा पर मत दर्शाना दुख - चिंता,
मत करना थक कर समझौता।

ये निर्बल पराश्रित लोग
सहारे के नाम पर बांध लेते हैं
नियमों व शर्तों की डोरियों से
और वे बंधे हुए बैल बने लोग
इनके काम आते हैं बोझा ढोने बाबत।

आपके साथ तैरने वाला मैं जानता हूँ कि 
हमारी देह पर रिसते कई घाव और
समुद्र का लवणयुक्त पानी दाह उपजा रहा। 

किनारे दृश्यसीमा से बाहर है।

हो सकता है तैरते-तैरते
समंदर की लहरों को चीरते हुए भी
हम नहीं पहूँच सकें किनारे तक
और समुद्र की कोई एक लहर
तोड़ डाले अपना देहबल
और हम डूब जाएं -मारे जायें।

लेकिन उस मरने से यह
'मारा जाना' सुंदर है।

समुद्र की लहरें तोड़ सकती है देहबल
लेकिन आत्मबल तोड़ने की शक्ति नहीं है उसमें,
पूरे समुद्र में भी नहीं।

यदि हम पहुंच गये किनारे तो
कई मर जायेंगे जीवित होते हुए भी
और यदि नहीं पहुंच सके तो पहुंचने वाले
शर्म से मर जायेंगे।

धारण कर लो,
धारण कर लो मेरे मित्रों!
कि -

"मारे गये कहलाना कबूल है
लेकिन 'मर गये' कहलाना कबूल नहीं"।

८.अकाल
________
धूप मौन होकर चूस रही है
स्याहीचूस की तरह जल,सरोवर का
मछलियाँ नाप रही है उपरी तल से निचले तल तक की गहराई।

सूरज की किरणें डॉक्टर की सुई भाँति
खींच रही है रक्त हरे वृक्षों का
पक्षी अनमने मन से ढूँढ रहे हैं
सूखी-बिखरी हुई वृक्षो की छाँव, 
कृषकों की आँखों में उग आया सूरज
अंतत डूब गया है अथाह नयन जल में।

तब किसी एक किसान ने 
गर्दन उठा कर कहा -

"नहीं है, नहीं है पानी आसमान में
आसमान के देवों में,
पानी है धरती में, धरती के लोगों में
अकाल यहाँ नहीं वहाँ पड़ा होगा।

कहाँ पड़ा अकाल और कहाँ कर रहे भोग लोग
कह रहे हैं संजोग
फकत संजोग!

९. कवि की मौत
______________
वो जब मर गया तब लोगों को लगा -
 
  -हमारी फौजों के पास खत्म हो गया बारूद
  जिसके आसरे हम हमलवरों से युद्धरत थे
  और हमारे सिपाहियों के कदम
  जीत की सीमा रेखा पार करने वाले थे।

  -फूट गयी वह दवा की शीशी
   जिससे हमारे देह पर रिसते घाव गिरने लगे थे।

  -समाप्त हो गया उस ट्यूबवेल का पानी
   जिससे बुझाते थे प्यास, धोते थे
   शरीर और वस्त्रों का मेल
   करते थे खेती की सिंचाई।

 -खत्म हो गया वह अनाज का ढेर
  जिससे हम भूख की मुर्गी को चुगा चुगाते थे।

 -खो गयी वह दृष्टि जो
  भले-बुरे की पहचान करती
  जो मार्ग बताती जिस पर
  चल कर हम वहाँ पहुंचते
  जहाँ सुख बांटे जाते।

 लगा कि -

  -विश्वास का घर दरार खा गया
   उम्मीद का छप्पर टूट गया,
   जम गमा रक्त देह की नलियों में
   स्वांस की थैली फट गयी।

नहीं, पर नहीं
हुआ तो सिर्फ इतना
कि ऐक चारों तरफ फैला
सीनातान
गर्व और गुमेज सा दिखता
भरे आकाश चढा हुआ वह
सिमटकर कागजो की परतों में पहुंच गया।

१०.प्रतीक्षा
__________
कच्ची शराब के भभकने की तरह
पसर जाता है दिन - झोंपड़ी पर 
जग जाती गलियों में गालियाँ व जालियाँ
उसका मजूरी पर जाने का वक्त हो गया है
पर वो कल का निकला अभी तक आया नहीं।

इन ऊंची इमारतों ने शुरू कर दी
झौंपड़ियों को कस कस कर ठोकरें मारनी
बाहर निकले बाद वह बन जाता है
'मेटाडर' या कि जोकर,
गरीब की भूख फटी हुई चप्पल में
चुभती कील की तरह बनाए रखती है
एक चुभन अष्टपोर, 
तुलसी हो या कबीर
पेट बजा कर,हाथ पसार कर आ गया है द्वार
पर वह वापिस नहीं आया
कल का गया हुआ अभी तक।

संसार त्यागी
संसारियो के बीच बैठ
सुनाते हैं अमर कहानियाँ 
तन्द्रा में या लय में,
हिलती रहती हैं घंटियाँ
ऊंचे घर की दहलीज पर बोल रहा है उल्लू
चुल्लू उस बड़ी नाक बाबत छोटा है।

आसपास की हरियाली
कैद है उनके कैक्टस और मनीप्लांट में
हर काल में दुख: निर्बल को खेंचता है, 
राजवी पिलास* गंगा में
स्नान कर सींच रहा है अपना उपवन
और वो है कि नेह के चने बांटता फिर रहा है
जबकि वे उसे चने के छिलके जितना ही नहीं मान रहे।

खबरों का झुनझुना बजाता
आ गया है आज का अखबार
पर वो कल का गया हुआ
लौट नहीं आया।

उसकी कोई ख़बर नहीं छपी अख़बार में 
और नेताजी को उसके(?) कल्याण से फुर्सत नहीं, 
उगते रहते हैं ऐसे ही आदर्शों के केश
उगते रहते हैं टूटे हुए बाल।

देह हवा में लटक रही लेकिन वो है कि
दवा और दुआ के बीच झूले खा रहा,
दिलाशों की अफीम चटा कर झुला झुला रही राजनीति कहती है -
"सो जा बाबू सो जा रे
थोड़ा मोटा हो जा रे"।

पर इस बाबू को कभी मोटा नहीं होने देते
नोट और सोट के इसारे बाबू वोट डाल
खुद को सरकार मान राजी हो जाता है।

बात घर-गवाड़ की हो या देस प्रदेश की
पढ़ता है, सुनता है लेकिन खुद नहीं समझता
अब वो वापिस आये तो कुछ सुनाये।
वो जब हमेशा काम की तलाश में जाता है
तो उसको लगता है कि जिनके पास काम है वे करते नहीं
जो करना चाहते उनको काम नसीब नहीं।

छपी हुई हो या चित्रित हो कि हों गढी हुई 
रपटीली गोलाइयां और मुंह भरता पानी
कब तक हो अदृश्य, 
कहानी की रानी से खींचातानी
और नित एक तस्वीर चटखा देता है
नामचीन पहलवान,
समाज के दुर्ग पर रहता
आठों पोर पहरा।

किसी चाल का दृश्य
अंदर ही अंदर चुभता रहता है
बोटी हो कि नहीं हो कुत्ते हड्डियाँ चूसते रहते हैं,
'मीट' शब्द का अलग अलग भाषाओं में अलग अलग अर्थ-
माँस, मिलना, नजर या फिर नमक
बच्चे को अर्थ बताता मास्टर
वक्त का पत्थर एक तरफ कर पूछता है -
'कली में कली'? 

बच्चे उत्पात का कंकड़ फेंकते हैं -

"छिपकली!"

मास्टर की आँख घड़ी से
और बच्चों के कान घंटी से चिपके रहते हैं
बेटे के स्कूल जाने का वक्त हो गया
पर बाप कल का गया हुआ कहाँ रह गया?

कलंक की कमी नहीं हो रही
कलकी अवतार नहीं ले रहा
पाप कोई घड़ा नहीं कि भर जाये
लोभ कोई जीव नहीं कि मर जाये
समझ जाते हैं नकली दाँत
कितना ही ताव क्यूँ न खा लें
नहीं घटेंगे बादामों के भाव
घर-घर गली-गली दे आवाज
"आओ आओ"

कल निकले हुए गंगाराम
काम खूब बाकी है तुम्हारा
पूरा करने जल्दी आओ!

Tuesday 15 March 2011

दोय राजस्थानी कवितावां

आव मरवण, आव !

आव मरवण, आव !

एकर फेरूं

सगळी रामत

पाछी रमल्यां ।

एकर फेरूं चौपड़-पासा

लाय बिछावां ।

ओळूं री ढिगळी नै कुचरां

रमां रमत रमता ई जावां

नीं तूं हारै, नीं म्हैं हारूं

आज बगत नै हार बतावां

आव,

मरवण एकर फेरूं आव !

सामौसाम बैठजा म्हारै

बोल सारियां किसै रंग री

तूं लेवैला,

पैली पासा कुण फैंकेला ?

आ चौपड़, ऐ पासा कोडियां

जमा गोटियां पैंक कोडियां

पौ बारा पच्चीस लगावां

म्हैं मारूं थारी सारी नै

म्हारी गोट छोडजै मत ना

तोड़ करां अर तोड़ करावां

चीरै-चीरै भेळै बैठां

मैदानां में फोड़ करावां

होड जतावां

कोडी अर गोटी रै बिच्चै

हाथ हथेळी आंगळियां

जादू उपजावां

ऐसौ खेल खेलता जावां

दोनूं जीतां, दोनूं हारां

काढ़ वावड़ी खेल बधावां ।

एकर मरवरण आव !

***

म्हारी म्हैं जाणूं

अचाणचक

पोल व्हेगी

पगां हेटली जमीं

पग, गोड़ां लग

जमीं में धंसग्या,

आखती-पाखती ऊभा

लोगां नै पुकारिया,

अचरज

कै वै सगळा

माटी री मूरतां में बदळग्या, माटी में धंसग्या

स्यात

कोई रौ स्राप फळग्यौ व्हैला

लाखां रा लोग

कोडियां रा व्हेगा !

म्हैं धरती रै कांधै धर हाथ

आयग्यौ बारै

अबै वै

गळै तांई धस्योड़ा लोग

बुला रैया है म्हनै ।

म्हारा दोय हाथां में सूं

एक म्हारौ है

दूजौ सूंपूं हूं वांनै

आ जाणता थकां ईं

कै बारै आयर नै

औ इज हाथ

काटण में लागैला,

पण वांरी वै जाणै

म्हारी म्हैं जाणूं ।

***

कवितावां रो हिंदी अनुवाद

कविता

यह मानचित्र है

यह एसिया और अफ्रीका

अंगुली रखता हूं

और भर जाती है खून में

ऐसे समय मालूम चलता है

कि बुरे वक्त में

अच्छा पड़ौसी कितना काम आता है

मिल कर छूट जाए तो

बहुत याद आता है ।

***

हम अपमानित

बारम्बार

अपमानित हुआ हूं मैं

अपमानित हुए हैं आप

मेरे प्रियजनों !

हम में से जब भी कोई

आकर गाता है सड़क पर,

मांगा जाता है उस से इजाजतनामा ।

हम ने जब कभी

अंधेरे में

लूटने की मंत्रणा करते

चेहरों पर टार्च का प्रकाश किया

अदृश्य हाथों का निशाना बनी टार्च

हम जब कभी

किसी मंच से

उठाते हैं हमारी आवाज

हम अपराधी घोषित हुए हैं

हम पर

सिर्फ शब्द ही नहीं फैंके गए

फैंकी गई पूरी किताबें

चिपका दिए गए

हमारे शब्दों पर शब्द

ताकि कोई हमारे शब्द

सुने नहीं, पढ़े नहीं, समझे नहीं ।

जिस दिन उन को

सुनाई देंगे हमारे शब्द

फिर वे दूसरों की नहीं सुनेंगे ।

यदि किसी ने पढ़ लिए तो

कितनों को वह पढ़ा देगा

किसी ने समझ लिया उन्हें

तो उसके सामने

कई गर्दनें

अपना भार नहीं सभाल सकेंगे ।

***

क्या है तुम्हारा फैसला ?

इतना अंधेरा

कि चारों दिशाएं लुप्त

इतना उजियारा

कि आंखें चुंधिया जाए

बोल, बता मित्र

अब क्या कहता है-

दृष्टि डालने के लिए

कौनसी जगह शेष है ?

ऐसा करते हैं हम

बांध कर इस उजाले की पोटली

रख लें कांधे पर

अंधेरे को आमंत्रित करें

धर कूंचाधर मंजलाचलें

चीर दें अंधेरे को

घर-घर बांटे

पोटली में रखा उजाला

इस लम्बी राह में खा-खाकर ठोकरें

पैरों में हौसला नहीं रहता

लेकिन टूटेगा नहीं

अब यह पाहाड़ सा पक्का फैसला

बोलो बताओ-

क्या है तुम्हारा फैसला ?

***

क्यों और किस के लिए

कई कई बार

पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले

दो पैर

-बैशाखियों के सहारे क्यों ?

अनेकानेक

व्रज-आधात सहने वाला

एक सीना

-क्यों उस में हृदय-प्रत्यारोपण ?

अंधेरे में ही

मीलों दूर स्पष्ट देखने वाली

दो आंखें

-क्यों धारे पाषाणी-स्थिरता ?

आते युगों की

समास्याओं का समाधान लिए

एक मैकेनाइज्डदिमाग

-क्यों नहीं लगा सकता हिसाब

खुद की जिंदगी का ?

क्यों एक रघुकुली

खड़ा है झुका हुआ

जगह-जगह से टूटा-बिखरा हुआ

जमाना

न जाने किस स्वतंत्रता के लिए

लगातार कर रहा है युद्ध ?

***

वह पहले जैसा नहीं था

पहले था, सब कुछ वह

वैसा तो नहीं था !

वृक्ष, घर और हवा

रहते थे सभी में

लम्बा था दायरा ।

हवा बुहारती थी बहुत कुछ

भीतर का मौन भी

और शरीर के रोग

हवा में घुली थी औषधी

पत्ते ताली देते

गर्मी सहते

वृक्ष नाचते

उस से मिलने पर

नीपे-पुते-साफ सजे

वृक्षों के बीज अच्छे लगते थे घर

बातों में हो जैसे

घुला हुआ कोई नशा

जैसे पहले था सब कुछ

वैसा कुछ नहीं था ।

अब लगती है- हवा

हवा ही नहीं

जैसे सांस में गड़ी हुई है कोई फांस

जिसे निकालना कठिन हो गया है

रोगी जैसे गूंगे खड़े

वृक्षों की शाखाएं कटी हुई

कहने को रहने भर को घर-वर है

डर है कि इसे भी ठूंठ न दबोच ले

कहीं हवाएं ही न नोच लें ।

ऐसा क्यों है अब

क्यों कुछ पहले जैसा नहीं

कहां है वह

जो रहता था यहां

हर तरफ मौन क्यों फैला है ?

लोगों ने कहा-

पता नहीं कहां गया, यहां नहीं है

वह फलों-फूलों से लदा

घेर-घुमेरदार वृक्ष था

हवाओं की खुशबू था

आंगन की छाया था

लोगों की आशा था- चला गया

काले कारनामों वाले

उजले आकारों से छला गया

चला गया-

थका तो पुनः जोर जुटाने चला गया

आंखों में रक्त का सौलाब लिए चला गया

जाते-जाते छलने वालो के सामने ऐसे तना

एक-एक के हृदय में

जैसे कोई भुजंग सिर उठाए

कुछ सूखी हड्डियां जानती हैं

वह कहां गया होगा ?

वे कहती हैं-

वह हवा तूफान को लाने गई होगी

वह भोले आदमियों को समझाने गया होगा-

सूने घर की रौनक लाने,

कटे वृक्ष की प्रतिष्ठा जमाने

सच कहते हैं-

पुन: लौटने की सोच कर गया होगा

लेकिन उस समय

आदमी तो वही था

लकिन वह पहले जैसा नहीं था ।

***

अनुवाद : नीरज दइया

कवि पारस अरोड़ा "राजस्थानी-1" नई कविता की आरंभिक पत्रिका के कवि हैं । राजस्थानी में आपके तीन काव्य संकलन प्रकाशित हुए हैं । आपने "अंवेर" कविता संकलन का संपादन किया, जो राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादेमी, बीकानेर से प्रकाशित-चर्चित । "अपरंच" नामक साहित्यिक पत्रिका के अतिरिक्त लोकप्रिय मासिक पत्रिका "माणक" के लिए भी कार्य किया ।

(डॉ. नीरज दइया रै ब्लॉIndia राजस्थानी सूं)