पारस अरोड़ा
राजस्थानी कवि, संपादक, अनुवादक
Tuesday, 28 July 2020
पारस अरोड़ा की राजस्थानी कविताओं का हिंदी अनुवाद- अनुवादक-राजेन्द्र देथा
Wednesday, 29 April 2020
Tuesday, 15 March 2011
दोय राजस्थानी कवितावां
आव मरवण, आव !
आव मरवण, आव !
एकर फेरूं
सगळी रामत
पाछी रमल्यां ।
एकर फेरूं चौपड़-पासा
लाय बिछावां ।
ओळूं री ढिगळी नै कुचरां
रमां रमत रमता ई जावां
नीं तूं हारै, नीं म्हैं हारूं
आज बगत नै हार बतावां
आव,
मरवण एकर फेरूं आव !
सामौसाम बैठजा म्हारै
बोल सारियां किसै रंग री
तूं लेवैला,
पैली पासा कुण फैंकेला ?
आ चौपड़, ऐ पासा कोडियां
जमा गोटियां पैंक कोडियां
पौ बारा पच्चीस लगावां
म्हैं मारूं थारी सारी नै
म्हारी गोट छोडजै मत ना
तोड़ करां अर तोड़ करावां
चीरै-चीरै भेळै बैठां
मैदानां में फोड़ करावां
होड जतावां
कोडी अर गोटी रै बिच्चै
हाथ हथेळी आंगळियां
जादू उपजावां
ऐसौ खेल खेलता जावां
दोनूं जीतां, दोनूं हारां
काढ़ वावड़ी खेल बधावां ।
एकर मरवरण आव !
***
म्हारी म्हैं जाणूं
अचाणचक
पोल व्हेगी
पगां हेटली जमीं
पग, गोड़ां लग
जमीं में धंसग्या,
आखती-पाखती ऊभा
लोगां नै पुकारिया,
अचरज
कै वै सगळा
माटी री मूरतां में बदळग्या, माटी में धंसग्या
स्यात
कोई रौ स्राप फळग्यौ व्हैला
लाखां रा लोग
कोडियां रा व्हेगा !
म्हैं धरती रै कांधै धर हाथ
आयग्यौ बारै
अबै वै
गळै तांई धस्योड़ा लोग
बुला रैया है म्हनै ।
म्हारा दोय हाथां में सूं
एक म्हारौ है
दूजौ सूंपूं हूं वांनै
आ जाणता थकां ईं
कै बारै आय’र नै
औ इज हाथ
काटण में लागैला,
पण वांरी वै जाणै
म्हारी म्हैं जाणूं ।
***
कवितावां रो हिंदी अनुवाद
कविता
यह मानचित्र है
यह एसिया और अफ्रीका
अंगुली रखता हूं
और भर जाती है खून में
ऐसे समय मालूम चलता है
कि बुरे वक्त में
अच्छा पड़ौसी कितना काम आता है
मिल कर छूट जाए तो
बहुत याद आता है ।
***
हम अपमानित
बारम्बार
अपमानित हुआ हूं मैं
अपमानित हुए हैं आप
मेरे प्रियजनों !
हम में से जब भी कोई
आकर गाता है सड़क पर,
मांगा जाता है उस से इजाजतनामा ।
हम ने जब कभी
अंधेरे में
लूटने की मंत्रणा करते
चेहरों पर टार्च का प्रकाश किया
अदृश्य हाथों का निशाना बनी टार्च
हम जब कभी
किसी मंच से
उठाते हैं हमारी आवाज
हम अपराधी घोषित हुए हैं
हम पर
सिर्फ शब्द ही नहीं फैंके गए
फैंकी गई पूरी किताबें
चिपका दिए गए
हमारे शब्दों पर शब्द
ताकि कोई हमारे शब्द
सुने नहीं, पढ़े नहीं, समझे नहीं ।
जिस दिन उन को
सुनाई देंगे हमारे शब्द
फिर वे दूसरों की नहीं सुनेंगे ।
यदि किसी ने पढ़ लिए तो
कितनों को वह पढ़ा देगा
किसी ने समझ लिया उन्हें
तो उसके सामने
कई गर्दनें
अपना भार नहीं सभाल सकेंगे ।
***
क्या है तुम्हारा फैसला ?
इतना अंधेरा
कि चारों दिशाएं लुप्त
इतना उजियारा
कि आंखें चुंधिया जाए
बोल, बता मित्र
अब क्या कहता है-
दृष्टि डालने के लिए
कौनसी जगह शेष है ?
ऐसा करते हैं हम
बांध कर इस उजाले की पोटली
रख लें कांधे पर
अंधेरे को आमंत्रित करें
धर कूंचा… धर मंजला… चलें
चीर दें अंधेरे को
घर-घर बांटे
पोटली में रखा उजाला
इस लम्बी राह में खा-खाकर ठोकरें
पैरों में हौसला नहीं रहता
लेकिन टूटेगा नहीं
अब यह पाहाड़ सा पक्का फैसला
बोलो बताओ-
क्या है तुम्हारा फैसला ?
***
क्यों और किस के लिए
कई कई बार
पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले
दो पैर
-बैशाखियों के सहारे क्यों ?
अनेकानेक
व्रज-आधात सहने वाला
एक सीना
-क्यों उस में हृदय-प्रत्यारोपण ?
अंधेरे में ही
मीलों दूर स्पष्ट देखने वाली
दो आंखें
-क्यों धारे पाषाणी-स्थिरता ?
आते युगों की
समास्याओं का समाधान लिए
एक ‘मैकेनाइज्ड’ दिमाग
-क्यों नहीं लगा सकता हिसाब
खुद की जिंदगी का ?
क्यों एक रघुकुली
खड़ा है झुका हुआ
जगह-जगह से टूटा-बिखरा हुआ
जमाना
न जाने किस स्वतंत्रता के लिए
लगातार कर रहा है युद्ध ?
***
वह पहले जैसा नहीं था
पहले था, सब कुछ वह
वैसा तो नहीं था !
वृक्ष, घर और हवा
रहते थे सभी में
लम्बा था दायरा ।
हवा बुहारती थी बहुत कुछ
भीतर का मौन भी
और शरीर के रोग
हवा में घुली थी औषधी
पत्ते ताली देते
गर्मी सहते
वृक्ष नाचते
उस से मिलने पर
नीपे-पुते-साफ सजे
वृक्षों के बीज अच्छे लगते थे घर
बातों में हो जैसे
घुला हुआ कोई नशा
जैसे पहले था सब कुछ
वैसा कुछ नहीं था ।
अब लगती है- हवा
हवा ही नहीं
जैसे सांस में गड़ी हुई है कोई फांस
जिसे निकालना कठिन हो गया है
रोगी जैसे गूंगे खड़े
वृक्षों की शाखाएं कटी हुई
कहने को रहने भर को घर-वर है
डर है कि इसे भी ठूंठ न दबोच ले
कहीं हवाएं ही न नोच लें ।
ऐसा क्यों है अब
क्यों कुछ पहले जैसा नहीं
कहां है वह
जो रहता था यहां
हर तरफ मौन क्यों फैला है ?
लोगों ने कहा-
पता नहीं कहां गया, यहां नहीं है
वह फलों-फूलों से लदा
घेर-घुमेरदार वृक्ष था
हवाओं की खुशबू था
आंगन की छाया था
लोगों की आशा था- चला गया
काले कारनामों वाले
उजले आकारों से छला गया
चला गया-
थका तो पुनः जोर जुटाने चला गया
आंखों में रक्त का सौलाब लिए चला गया
जाते-जाते छलने वालो के सामने ऐसे तना
एक-एक के हृदय में
जैसे कोई भुजंग सिर उठाए
वह कहां गया होगा ?
वे कहती हैं-
वह हवा तूफान को लाने गई होगी
वह भोले आदमियों को समझाने गया होगा-
सूने घर की रौनक लाने,
कटे वृक्ष की प्रतिष्ठा जमाने
सच कहते हैं-
पुन: लौटने की सोच कर गया होगा
लेकिन उस समय
आदमी तो वही था
लकिन वह पहले जैसा नहीं था ।
***
अनुवाद : नीरज दइया
कवि पारस अरोड़ा "राजस्थानी-1" नई कविता की आरंभिक पत्रिका के कवि हैं । राजस्थानी में आपके तीन काव्य संकलन प्रकाशित हुए हैं । आपने "अंवेर" कविता संकलन का संपादन किया, जो राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादेमी, बीकानेर से प्रकाशित-चर्चित । "अपरंच" नामक साहित्यिक पत्रिका के अतिरिक्त लोकप्रिय मासिक पत्रिका "माणक" के लिए भी कार्य किया ।